Thursday, November 6, 2014

मन की गहराई

झुकी नज़रें जब उठीं 
सामने था गहरा-नीला आसमां ,
चीरती हुयी जिसकी हवाएँ 
कर देतीं मन को गहरा ,
पूछतीं 
दिल की धड़कनें ऐसे 
मानो छूटी जातीं मन की गहराई, 
सागर तट पर आत्मा संग 
बैठा था ये अंग ,
 क्या कहूँ जब सागर लहरें 
प्रवेश करती मेरे इस मन में ,
कोना-कोना तब होता शीतल-पावन 
तब प्रवेश करता मेरा ये मन ,
गहरे बादलों में 
दूर तक ढूंढ़ती नज़रें ,
देखतीं जलतीं 
देख मन की गहराई ,
क्या सच कहती है आत्मा 
नहीं है गहरा सागर 
नहीं है गहरा आसमां 
बस गहरी है ये 
मन की गहराई ...

मेरे गीत

मेरे गीत हैं ऐसे 
की अरमानों की धुंधली सी  तस्वीर 
इनकी गूँज है वहाँ 
जहाँ है जल है, गगन है और है समीर 
सागर की लहरों की सरगम से 
मैंने सजाया है इनका रूप 
इनके हर कण में है बसी 
मेरे अनुभवों की छाँव और धूप 
जब-जब इन गीतों को मैंने गाया 
संग मेरे है मग्न हुया धरती का भी साया 
मदहोश हो हवाएँ खिलखिलाने लगीं 
चारों दिशाएँ भी इसे गले लगा अपनाने लगीं 
भीनी सी खुशबू छाने लगी देखो चारों ओर 
चुपके-चुपके आई फिर रात घनघोर 
संग मेरे गाने लगे चाँद और तारे 
आ बैठे पास मेरे प्रकृति के नज़ारे 
मैं खुश हूँ, बहुत खुश हूँ 
की मेरे गीत हैं ऐसे 
मेरी छवि, मेरी गति, खुद मेरी तकदीर ... 

यादें

 यादें जीने का सहारा हैं
बहती हुयी नदी का सिमटा सा किनारा हैं,
अच्छी या बुरी यादें तो बस यादें हैं
चाहकर भी जो हों न पूरे ऐसे वादे हैं
 मिलन की कसक में, तड़प में
जब जीवन बेजान हो चले
तो दर्द को मिलती है राहत
यादों के कोमल आँचल तले
अकेली तन्हा ज़िन्दगी में भी
यादें तो चहकतीं हैं
बिन फूल, बिन बाग़ के भी
यादें तो महकती हैं
सुने चेहरे की मुस्कान हैं
यादें किसी अपने की पहचान हैं
सपना या ख़्वाब चाहे जो  हो नाम
इनके साये ने किसी को किया आबाद, किसी को बदनाम
चूड़ियों की खनक में, पायल की छनक में
इनका अस्तित्व रहता है अमर
ज्यों चाँद की याद में
रात है जागती अनेकों पहर
रेत की तरह बह जाती
वक़्त की तरह बढ़ती जाती
यादें तो बस यादें हैं
जो किसी की न हो पाती। 

Tuesday, November 4, 2014

मेरा अंश


आज अचानक अपनी धड़कनों को,
किया महसूस  मैंने दो बार,
आँखों से मेरी खुशियों के आंसू
फूटने लगे क्यूँ बार बार।
ये कैसा अजब सा अहसास है
की जो छिपाए नहीं छिपता,
ये आज मेरे आँचल में प्यार का सागर
क्यूँ आज समेटे नहीं सिमटता। 
आज मुझे खुद मेरी ही पहचान
क्यूँ बदलती सी दिखने लगी,
आज मुझे हर खिलती सी कली
क्यूँ अपनी सी लगने लगी। 
हया की इक मद्धिम सी लहर
मन को क्यूँ गुदगुदाती है,
चुप सी रहती मेरी आवाज़
क्यों मन ही मन लोरियाँ सी गाती है। 
हर कदम पे आज
क्यूँ सँभालने को जी चाहता है,
सूना सा मेरा आँगन
आज खिलखिलाकर मुस्कुराता है। 
हर बढ़ते दिन के साथ
मेरी छवि मुझे बढ़ती सी नज़र आई
मेरी ममता के साये में मुझे महसूस हुई
आज मेरे अंश की परछाईं।

आम आदमी


रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से गुज़रते 
वो सालों से थकते रस्ते पर 
हर सुबह शाम धूल  से खेलते क़दमों का 
यूं सिमटता हुआ ज़िन्दगी का सफ़र 
जहाँ पसीने की बूँद में गंध नहीं 
सुगंध है तिनका तिनका जुड़ती खुशियों की 
जहाँ हार-जीत सब एक समान 
और हर लम्हें में आहट है चुनौतियों की 
वो सिर्फ डब्बा नहीं है खाने का 
उसमे सिमटी है कहीं ममता, कहीं प्यार 
वो जहाँ शाम ढलते ठन्डे पानी का गिलास 
है कराता गुदगुदाते अपनत्व का इज़हार 
वो जहाँ जेब में इक दस का नोट 
भी नयी उम्मीदों के लिए काफी है 
वो जहाँ हर थकान भरे गुस्से में 
रेशमी आँचल में लिपटी माफ़ी है 
ये साधारण सी पंक्तियाँ सिर्फ साधारण हैं 
और बात करतीं है कुछ आम सी 
की आम आदमी की ज़िन्दगी कुछ ऐसी है 
जहाँ छोटी छोटी खुशियाँ बिखरीं हैं बेनाम सी ........

वो चिट्ठी आई ???


मेरे दरवाज़े की कुछ टूटी कुछ जुड़ी कुण्डी पर
आज फिर कुछ आहट सी हुई,
आँगन में नीम के पेड़ पर आज,
हवा से कुछ सरसराहट सी हुई।
मेरी बेचैन सी थकी नज़रों में ,
इक हलकी सी चमक फिर जागने लगी
आते हुए क़दमों की आहट से मेरी नज़रें,
उसकी दूरी को फिर नापने लगीं।
क्या आज वो चिट्ठी आई है ?
जिसका न जाने कब से है इंतज़ार।
जिसकी उम्मीद में माँ ने जलाये
न जाने मंदिर में कितने चिराग
जो मेरे बरसों की मेहनत के
फल का एक स्वरुप है। 
जो आज तक सिर्फ मेरे सपनों में ही थी
उस सफलता का इक रूप है
जिसकी कल्पना मात्र ही मेरे
जीवन के पन्नों को यूँ पलटाती है। 
की मेरी हर परीक्षा में माँ के आशीर्वाद को
वो सहसा  ही याद दिलाती है। 
 मुझे याद आते हैं फिर वो कदम,
जो पिताजी की उंगली थाम पाठशाला तक जाते थे
जब इक फ़र्ज़ के नाम पर वो
मेरा बड़े से बड़ा बोझ उठाते थे। 
आज महसूस होता है वो बोझ
मुझे खुद अपने ही कन्धों पर
आज पूछती है पिताजी की छड़ी मुझसे
क्या खरा उतरूंगा मैं अपने वादों पर ?
कि फिर अचानक दरवाज़े पर हुई उस आहट ने
नवचेतना मुझ में फिर जगाई
मुझे मेरे कदमों पर खड़ा करेगी जो,
क्या आज वो चिट्ठी आई ?




धूप का टुकड़ा

ढलती हुई शाम की, बढ़ती हुई सर्दी में ,
वो लुप्त हो चला था,
इधर उधर, आगे पीछे ढूंढा उसे,
पर वो मेरे आँचल में जा छिपा था।
हर सुबह की पहली किरन के साथ
मैं टकटकी लगाये बैठ जाती,
वो "धूप का टुकड़ा" कहाँ है
काश मैं उसे देख पाती।
हर सर्दी के  मौसम में
मैं कुछ घबरा जाती थी,
बस धूप के उस टुकड़े के साथ
लुका - छिपी खेला करती थी। 
उसे कैसे बताऊँ
वो मेरे लिए कितना  ख़ास  है,
उसे कैसे समझाऊँ, इस ठण्ड में
वही तो इक गर्मी का एहसास है। 
वो मेरी बेचैनी पर खिलखिला कर हँसता,
और फिर बादल में छिप जाता,
कभी अपना तेज बिखराकर
यूँ ही मुझे सताता।
धीरे धीरे जाती इस सर्दी में
कुछ समझने लगी थी मैं,
मैं क्यूँ पल-पल घबराती हूँ ?
मैं क्यूँ  मन को समझाती हूँ ?
ये धूप का टुकड़ा तो मेरा है,
मेरे आँगन में इसका बसेरा है। 
उसकी खामोशी मैंने समझी आज,
कानों में गूंजी उसकी आवाज़
"तुम मुझे क्यूँ ढूंढती हो ?"
जबकि मैं तुम्हारे पास हूँ।
 जो गर्मी तुम महसूस  हो करती
उसमे छिपा ज्वलंत विश्वास हूँ,
तुम ढूंढती हो  मुझे इस आकाश में
मैं तो इक झरोंखे से आ जाता हूँ। 
जिस दिन तुम मुझे पहचान गयी,
उस दिन तुम समझ जाओगी
ये टुकड़ा जिसका  अंश है। 
उस प्रकाश्यमान सूर्य  को तुम पाओगी
जो छिपता नहीं किसी बादल में,
 जो रोशन होगा तेरे आँचल में,
उस दिन समझोगी तुम  खुद को
ये जीवन की सच्चाई है। 
ये "धूप का ही तो टुकड़ा " है
जो बनता तुम्हारी "परछांई" है।