ढलती हुई शाम की, बढ़ती हुई सर्दी में ,
वो लुप्त हो चला था,
इधर उधर, आगे पीछे ढूंढा उसे,
पर वो मेरे आँचल में जा छिपा था।
हर सुबह की पहली किरन के साथ
मैं टकटकी लगाये बैठ जाती,
वो "धूप का टुकड़ा" कहाँ है
काश मैं उसे देख पाती।
हर सर्दी के मौसम में
मैं कुछ घबरा जाती थी,
बस धूप के उस टुकड़े के साथ
लुका - छिपी खेला करती थी।
उसे कैसे बताऊँ
वो मेरे लिए कितना ख़ास है,
उसे कैसे समझाऊँ, इस ठण्ड में
वही तो इक गर्मी का एहसास है।
वो मेरी बेचैनी पर खिलखिला कर हँसता,
और फिर बादल में छिप जाता,
कभी अपना तेज बिखराकर
यूँ ही मुझे सताता।
धीरे धीरे जाती इस सर्दी में
कुछ समझने लगी थी मैं,
मैं क्यूँ पल-पल घबराती हूँ ?
मैं क्यूँ मन को समझाती हूँ ?
ये धूप का टुकड़ा तो मेरा है,
मेरे आँगन में इसका बसेरा है।
उसकी खामोशी मैंने समझी आज,
कानों में गूंजी उसकी आवाज़
"तुम मुझे क्यूँ ढूंढती हो ?"
जबकि मैं तुम्हारे पास हूँ।
जो गर्मी तुम महसूस हो करती
उसमे छिपा ज्वलंत विश्वास हूँ,
तुम ढूंढती हो मुझे इस आकाश में
मैं तो इक झरोंखे से आ जाता हूँ।
जिस दिन तुम मुझे पहचान गयी,
उस दिन तुम समझ जाओगी
ये टुकड़ा जिसका अंश है।
उस प्रकाश्यमान सूर्य को तुम पाओगी
जो छिपता नहीं किसी बादल में,
जो रोशन होगा तेरे आँचल में,
उस दिन समझोगी तुम खुद को
ये जीवन की सच्चाई है।
ये "धूप का ही तो टुकड़ा " है
जो बनता तुम्हारी "परछांई" है।