मेरे दरवाज़े की कुछ टूटी कुछ जुड़ी कुण्डी पर
आज फिर कुछ आहट सी हुई,
आँगन में नीम के पेड़ पर आज,
हवा से कुछ सरसराहट सी हुई।
मेरी बेचैन सी थकी नज़रों में ,
इक हलकी सी चमक फिर जागने लगी
आते हुए क़दमों की आहट से मेरी नज़रें,
उसकी दूरी को फिर नापने लगीं।
क्या आज वो चिट्ठी आई है ?
जिसका न जाने कब से है इंतज़ार।
जिसकी उम्मीद में माँ ने जलाये
न जाने मंदिर में कितने चिराग
जो मेरे बरसों की मेहनत के
फल का एक स्वरुप है।
जो आज तक सिर्फ मेरे सपनों में ही थी
उस सफलता का इक रूप है
जिसकी कल्पना मात्र ही मेरे
जीवन के पन्नों को यूँ पलटाती है।
की मेरी हर परीक्षा में माँ के आशीर्वाद को
वो सहसा ही याद दिलाती है।
मुझे याद आते हैं फिर वो कदम,
जो पिताजी की उंगली थाम पाठशाला तक जाते थे
जब इक फ़र्ज़ के नाम पर वो
मेरा बड़े से बड़ा बोझ उठाते थे।
आज महसूस होता है वो बोझ
मुझे खुद अपने ही कन्धों पर
आज पूछती है पिताजी की छड़ी मुझसे
क्या खरा उतरूंगा मैं अपने वादों पर ?
कि फिर अचानक दरवाज़े पर हुई उस आहट ने
नवचेतना मुझ में फिर जगाई
मुझे मेरे कदमों पर खड़ा करेगी जो,
क्या आज वो चिट्ठी आई ?
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